Saturday, December 5, 2015

मिट्टी के पुतले

Wrote this poem for a Literary Week competition where the theme was 'Soil' - to celebrate the year of Light and Soil declared by UNESCO.

हम मिट्टी के पुतलें हैं, मिट्टी में मिल जाने हैं.

बचपन खेला मिट्टी से, यौवन ढाला मिट्टी से,
पहली बारिश जब होती थी, खुशबू वह देती सौंधी सी,
उस मिट्टी को क्यों बांटें हम, वह तेरी थी न मेरी थी,
यह मिट्टी तो हम सबकी है, इस पार रहे उस पार रहे.

यह देश, धर्म के बंटवारे, हमने क्यों पैदा कर डाले,
मिट्टी का कोई धर्म नहीं, मिट्टी की कोई जात नहीं,
हम मिट्टी के ही पुतले हैं, मिट्टी तो आखिर मिट्टी है,
मिट्टी को कोई नाम न दो, इस देश रहे उस देश रहे.

यह आड़ी तिरछी सरहदें, मिट्टी में खिंची लकीरें हैं
सतही इन लकीरों का, दो गज नीचे निशान नहीं,
कितना भी बांटों आर-पार, नीचे मिट्टी तो सांझी है,
अपनों ही के आंसुओं से. यह लकीरें भी मिट जानी हैं.

हम मिट्टी के ही तो पुतलें हैं, और मिट्टी में ही मिल जाने हैं,
इस पार रहे उस पार रहे, इस देश रहे उस देश रहे.

1 comment:

  1. Very profound Mahesh. So heartfelt. Well written 👍🏽

    ReplyDelete